Sunday, 1 August 2010

रूहें घरों में बंद पड़ी है देखो. ........

रूहें घरों में बंद पड़ी है देखो. 
राहों में तो मशीने नजर आती है 

समय गुजारना स्वभाव बन गया है 
रूहें खुद को कहाँ समझने  पातीं है 

इंसान कि आखों का पानी जम गया है 
परायी सिसकियों कि कब याद आती है 

अपनत्व कि आढ़ में व्यापार पनपते हैं .
अपनेपन कि परिभाषा कहाँ समझ आती है .

पग पग पर भविष्यवाणियों  का बाज़ार लगा है.
सब कुछ जानते भी दुनियां खुद को भरमाती है 

रंगों का क्या ये तो जगह जगह मिलते है 
फिर भी ये दुनियां श्वेत श्याम नजर आती है 

जब  कभी ये पलके वोझिल महसूस करती है .
अचानक ही अश्कों कि  स्याही बन जाती है .