कभी तो सोच मानव ,क्यों लिया धरती पे तूने ये जनम ,
कभी तो याद करले ,प्रेम करना है तेरा पहला कदम ।
कभी तो देख चलके बेधड़क सच्चाई के उस रस्ते ,
कभी तो देख बनके तू बना इंसान जिसके बास्तें ।
क्यों भर रहा है दम, जो तू चल पढ़ा गँवांने को ,
होता रहा है दूर जिसको आया था तू पाने को ।
क्या कर सका है ,न्याय जिसे अपने लिए है मांगता,
क्या देखे रुक के फूल, चला आया है जिनको लांघता
क्या यही है तेरी खोज ,ये सरहद , ये रक्तरंजित सरजमीं
या समझ लिया है बोझ ,चैन की तलाश थी तुझको कही।
बन तो गया दरबान , मौत का कर सकेगा सामना ,
क्या मरते को जीवन दे सकी,पुरुषत्व की अवधारणा ।
क्या है तुझे ये इल्म , तेरे झूठ ने तुझको ही झूठा कर दिया,
जीतने की चाह ने छोटे कद के इस जहां को और छोटा कर दिया।
क्या हो गया हासिल ,जो सुन ली पत्थरों की दास्तान ,
न हिन्दू आया, न मुस्लिम पैदा हुआ, ये मेरी बात मान ।
अहसास करके देख ले ,कभी औरों के भी दर्द को ,
ऐसा न हो मर जाये व्यर्थ , न समझे जिंदगी के अर्थ को।
तू देख करके गौर, एक ही माटी के पुतले है सभी,
धर्मान्धता हटा, इंसान बनने की कोशिश कर कभी .
2 comments:
प्रेम धुन सच मे प्रेम का धुन है .........आपकी इस रचना मे गोते लगाये और पाया बहुत ही सुन्दर सुन्दर सिपियाँ और मोतियाँ..........जो जीवन है ......और क्या कहू!
Post a Comment