Friday, 2 May 2014

भीड़तंत्र और भीरुतंत्र

भीड़तंत्र और भीरुतंत्र जो मिल बैठे एक साथ
लोकतंत्र के कातिल करते लोकतंत्र की बात।

दामन पर इनके देखिये है कितने कितने दाग
प्रजातंत्र के मिथक को डसते इच्छाधारी नाग।

हर दिशा से आवाज़ है आयी, है चारो और ये शोर
लोकतंत्र की लाज़  बचाते हत्यारे, पाखंडी, चोर।

भ्रष्टाचारी इस प्रजा का ये भ्रष्टाचारी राजा
चोरों में हलचल मच गयी, खुला -g का दरवाज़ा।

कोलगेट के घाट पर, कॉमनवेल्थ की अल्वाडी
अच्छे खासे देश की सेहत इन्होने बिगाड़ी।

अपनी अपनी बकते रहे, नहीं दिया सच्चे मन का साथ
गिनो चॉकलेट अब गुब्बारे, सब खतम हो गयी बात।

बुलेटप्रूफ जैकेट से ढकतेये 53 इंच का सीना
कहीं अखाड़े लड़ मरो, अभी देश को और दिनों है जीना।

छुरीबाज़ फिर दंगाई अब विकासपुरूष हैं आप
जनमानस की तुच्छ मति में दफ़न हो गए पाप।

लोकतंत्र पर बाँध बनाते, अनशन देखो ये करबाते, बजाते सबके बारह
सारी दुनिया पीतल कि मैं स्वर्णिम बेबीडॉल, बन गया इनका नारा।

साधू जैसे वेश में देखो, नेताओं के बाप
भगवा मैला मत करो, सूट सलवार पहन लो आप।

जनता शायद भूल गयी, हम लोकतंत्र के पांव
पहले खुद को तौल ले, फिर नेताओं पे दांव।

मारा-मारी, छल कपट, दिनोंदिन बढ़ता जाता
आबादी की बात करो, जो है इन सबकी माता।

सीढ़ी चढ़िए एक एक, वरना गिरिएगा औंधा
मिट्टी, पानी और समय, बीज तब बने है पौधा।

दोष लगाना छोड़िये, वेवकूफों को दें आराम
स्वतंत्रता, अधिकार जानिए, कीजिये रचनात्मक कोई काम।

बैर, बुराई, अहम समझिए, भीड़ छोड़िये आप ही बढ़िए
समस्या का मूल समझिए, देश छोड़िये ब्रह्मांड को गढ़िये।

Monday, 2 January 2012

प्रेम और विस्तार

आज फिर अनकहे को कहने की कोशिश करता हूँ 
हवा में एक तस्वीर बनाई है अब रंग  भरता हूँ 

दुनियां की लिखा पढ़ी का  सार नहीं दिखता
सच है बंद आँखों को  विस्तार नहीं दिखता 

खुद को देख पाने का  अच्छा अवसर पाया है 
हिम्मत कर परिंदा  फिर गगन को आया है 

बंधनों की परिभाषाओं के  सारे बंध तोड़ने है  
प्रेम की नज़र से इस जहां के राज खोजने है





Monday, 12 September 2011

साँस लेता है कोई



   खुद की ही गहराइयों में साँस लेता है कोई,
   ख़ुशी में घुली उदासी , जान लेता है कोई.
   अँधेरे और उजाले में, छिड़ा है पुरजोर द्वंद्व,
   फिर कौन  देखता है, दोनों को एक संग .




Saturday, 9 April 2011

"शब्द और सत्य"

                                 शब्दों का यदि कहें ,आखिर सत्य क्या है 
                                 यदि शब्द ही सत्य हैं तो प्रक्रति प्रदत्त क्या है 

                                 माना की शब्दों ने जीवन को कई नए आयाम दिए हैं 
                                 एक साथ मिलकर शब्दों ने रचनात्मक निर्माण भी किये है 

                                 सच है शब्द खुद को फैलाने का आसान सहारा हैं  
                                 कभी गुस्सैल  हैं ,कभी प्रेमी हैं तो कभी आवारा हैं 

                                समझ पता हूँ इनकी ताकत तभी तो डरता हूँ 
                                वेबस हूँ ,कुछ कहने को इन्ही  का प्रयोग करता हूँ 

                                मन की अभिव्यक्ति वेशक, शब्द की डाली पर फलती है  
                                हुआ करते थे कभी सहारा,अब दुनिया शब्दों पर चलती है

                                शब्दों के हैं सौदागर यहाँ ,शब्दों के दीवाने हैं
                                नापना चाहो किसी को अगर शब्द ही पैमाने हैं

                                शब्दों से दुखित होते हैं, हम खुशियाँ इन्ही से पाते हैं
                                अंतर्मन के सभी फसाने इन्ही से महसूस किये जाते हैं

                                शब्दों के इस जगत में कुछेक को आसानी भी है
                                कुछ बेचारे यूँही वेबस है ,बरबस ही परेशानी भी है

                                कहीं कहीं शब्दों का लक्ष्य वार्तालाप है,और कुछ भी नहीं 
                                भरमाने वाले इस जगत में अक्सर ऐसा होता तो नहीं 

                               प्रतिशत वहुत कम है, मगर "मौन" भी जीवित है कहीं 
                               हरेक को शब्द पर तौलने की कोशिश करना भी नहीं 

                               शब्दों से बाँधकर तुमने जाने कितने अनुमान गढ़े होंगे
                               हो सकता है कुछेक तौल पर ठीक-ठाक भी चढ़े होंगे

                               हर एक गहराई को फिर भी एक मत समझ बैठना
                               कभी कभी निगाहों से भी मुश्किल होता है देखना

                              अनुमानों कि विनाह पर कुछ कम ही अकड़ना
                              जीवन इतना तरल है, की आसाँ नहीं है पकड़ना

                              वैसे तो दुनियाँ सरल है, शब्दों ने जटिल किया है
                              सीधा सा भी अगर सच है उसको भी घुमा दिया है

                              कुसूर नहीं ये तुम्हारा, सब ज़माने कि गलती है 
                              हुआ करते थे सहारा, अब दुनियाँ शब्दों पर चलती है 

                              कभी कभी अस्तित्व पर इतना प्यार होता है
                              करैं कुछ भी, कहें कुछ भी, सब बेकार होता है

                              माफ़ करैं हमें,यदि आपके दिल,हमारे शब्दों में ठनी है
                              कोशिश करना दूर हो सके,यदि कहीं ग़लतफ़हमी बनी है 

                              शब्दों के प्रभाव को देखकर, अब खुद को सिकोड़ना चाहूँगा
                              पानी हूँ,बहना तो नहीं छोड़ सकता,हाँ रूख़ जरुर मोड़ना चाहूँगा    

Wednesday, 2 February 2011

समानता पर चाहिए

ठगे से पैरों में हलचल दिखाई पड़ती है 
बदलते दौर कि आहट सुनाई पड़ती है .
  
खुश हूँ , कि कली पर रुबाब आया है 
जमे हुए पानी पर फिर वहाब आया है .

लौट आई है ,चमेली पर भूली सी महक 
याद आई है , बुलबुल को वही प्यारी चहक .

खुश हूँ , खुशियों के सही मायने के लिए 
खुद को दिखा सके , उसी आईने के लिए .

चिंगारी और भी भड़के यही फर्माहिश है 
सारा जंगल ये जला दे , यही ख्वाहिश है .

सब कुछ देखता हूँ , फिर भी ये ख्याल आता है 
जुवां पे फिर भी, बरबस ये  सवाल आता है 

ख़ुशी की कलम में कहीं दुख कि स्याही तो नहीं 
ख़ामोशी ये ,कहीं किसी तूफ़ान की गवाही तो नहीं .

बड़ चला जो कारवां , कहीं रुक तो न जायेगा 
उन्मुक्त परिंदा ,कहीं पिंजरे में तो न आएगा .

समय अभी वहुत है , अंजाम कई है बाकी
जाम तो छलकता है , पर आधा ही है साकी .

समय की आढ़ में बहुतेरे ख्वाब भी बुनते है 
कली को नहीं , तोड़ने सब फूल ही चुनते है .

जो दिखाई दे हो सकता है; हो ही न कहीं 
सम्भावना तो उसकी भी है , जो दिखता ही नहीं 

नहीं ;घबराना नहीं , आग में कूद जाना है 
मरना तो कभी है नहीं, नया जीवन पाना है .

सवाल तेरा ही नहीं , सारे उपवन का भी है  
ड़ाल , पत्ते , कलियाँ और सावन का भी है.

अस्तित्व एक है सबका , और कहाँ जाइये 
भेद तो बहुत सुन्दर है , समानता पर चाहिए .




Sunday, 14 November 2010

कहना सुनना या जानना नहीं, जी लेना है इसे

गम कहूँ या हँसी ,लगता है कि झोंका है
कहता हूँ तो तन्हाई, देखता हूँ तो मौका है.

कहता है वफ़ा जिसको,लगता है कि धोखा है 
तू है कहाँ खुद का ,फिर किसका भरोसा है.

माना जिसे हकीकत,वस शब्दों का घेरा है 
अँधेरा है कहा जिसको, नामौजूद सबेरा है

जी रहा है जिसको, जो जीवन सा दिखता है 
सोचा है वो किसी का,जो बाज़ार में बिकता है.

पल पल है सँवारा, जिसे सभाल कर रखता है
 ये जो रेत का घरोंदा,बनता है; के मिटता है.

माना इसे तो चाँदी,माना तो ये सोना है
ये उधार कि आँखे,और खुद में ही रोना है .

उड़ सके जो फलक तक,पिंजरे में वो मैना है
कुछ डरे डरे से पर है , और सूखे से नैना है.

इस हाथ कि खुशी जो, उस हाथ का ही गम है    
है कलम तक लिखावट , और आँख तो दर्शन है .
 

Wednesday, 15 September 2010

ख़ुदा-ए-जहान का भी अजीब किस्सा है

  ख़ुदा-ए-जहान का भी अजीब किस्सा है .
  क़त्ल हो रहा है जो, कातिल का ही हिस्सा है .

  बंद है आँखें उसकी और ध्यान गाफ़िल है.
  जो मिल रहा उसे वो नाम क़ातिल है.

  मरने वाले  को बेशक़, मौत कि न समझ आई है.
  क़ातिल के है जो सामने खुद उसकी ही सच्चाई है.

 क़त्ल और क़ातिल एक ही जहां कि बातें है 
 जो समझ सके वो समझ ले, एक ही सी साँसे हैं .

इंसानियत कि खाल में नकाबपोश मौन हैं.
न मरने वाला, न मारने वाला ये कुसूरवार कौन है.