गम कहूँ या हँसी ,लगता है कि झोंका है
कहता हूँ तो तन्हाई, देखता हूँ तो मौका है.
कहता है वफ़ा जिसको,लगता है कि धोखा है
तू है कहाँ खुद का ,फिर किसका भरोसा है.
माना जिसे हकीकत,वस शब्दों का घेरा है
अँधेरा है कहा जिसको, नामौजूद सबेरा है
जी रहा है जिसको, जो जीवन सा दिखता है
सोचा है वो किसी का,जो बाज़ार में बिकता है.
पल पल है सँवारा, जिसे सभाल कर रखता है
ये जो रेत का घरोंदा,बनता है; के मिटता है.
माना इसे तो चाँदी,माना तो ये सोना है
ये उधार कि आँखे,और खुद में ही रोना है .
उड़ सके जो फलक तक,पिंजरे में वो मैना है
कुछ डरे डरे से पर है , और सूखे से नैना है.
इस हाथ कि खुशी जो, उस हाथ का ही गम है
है कलम तक लिखावट , और आँख तो दर्शन है .
8 comments:
"ला-जवाब" जबर्दस्त!!
शब्दों को चुन-चुन कर तराशा है आपने ...प्रशंसनीय रचना।
बहुत सुन्दर!
रूपम जी ,
बहुत अच्छी लगी आपकी यह रचना ..ज़िंदगी के यथार्थ को कहती हुई ..
जी रहा है जिसको, जो जीवन सा दिखता है
सोचा है वो किसी का,जो बाज़ार में बिकता है.
पल पल है सँवारा, जिसे सभाल कर रखता है
ये जो रेत का घरोंदा,बनता है; के मिटता है
यह विशेष पसंद आयीं .....
और हाँ मेरे ब्लॉग पर आने का शुक्रिया ....ज़िंदगी का गंतव्य तो एक ही है ..और वो हर एक कि ज़िंदगी को मिल ही जाता है ..
आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ और दिल खुश हो गया...आपके पास अच्छे शब्द ही नहीं अच्छे भाव भी हैं जो आप अपनी रचनाओं में बखूबी प्रस्तुत करते हैं...मेरी बधाई स्वीकार करें और लिखते रहें...
नीरज
bhut acchi lagi ye rachna
regards
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 16 -11-2010 मंगलवार को ली गयी है ...
कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया
बेहतरीन!
बेहद उम्दा और जीवन दर्शन दिखाती प्रस्तुति।
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