हृदय में अजीब सी खिन्नता नजर आती है,ऐसा नहीं है कि आसपास व्यस्तता का अभाव हो ,बात तो यही है ये व्यस्तता आखिर चाह क्या रही है. शांत भाव से यदि अवलोकन किया जाये तो हम पते है , कि कोई कथनी में मगन है तो कई करनी में ......... लक्ष्यों कि भरमार है, जिन पर लक्ष्यों का अभाव है उन पर तो और ज्यादा व्यस्तता मुह बाये खड़ी है.
पर ये सब हो क्या रहा है ,और ये सब क्यों हो रहा है मकसद सबके एक ही समान है जैसे -किसी को अपना सर ऊँचा करना है तो किसी के माँ बाप के अरमान अधर में लटक रहे है, किसी की जेब है कि भरने का नाम ही नहीं लेती, किसी को आये दिन समस्या खड़े रहती है आदि - आदि .
बचपन से अब तक कई परिवर्तन देखने को मिले ,लेकिन सिवाय देखने के कुछ समझ नहीं आया कि ये परिवर्तन आखिर हुए क्यों. वैसे दुनियादारी कि भाषा में तो कई तर्क दिए जा सकते है, क्योंकि यहाँ पर आसन शब्दों द्वारा कठिन से कठिन कहे जाने बाले सरल से सरल सवालों के जटिल से जटिल जबाब बना लिए गए है.
दुनिया विकास कर रही है और विकास की ही बात की जा रही है, पर ये विकास कैसा है बही ऊँची-ऊँची इमारतें,बही उच्च छमता बाले राजमार्ग , जिन्हें देखकर खुद के छोटेपन को बड़ा किया जा सके . सब कुछ हमारे ही आनुरूप.
पेट का पानी हिलना सेहत के लिए हानिकारक हो सकता है , ये तो अब एक विचार का रूप बन गया है, शरीर को आराम देना जरुरत के साथ साथ मापन पद्धति भी बनकर उभरी है. क्योंकि ज्यादा शान-शोलत ज्यादा आराम-दायक वस्तुओं कि वहुलता प्रभुत्त्व निर्माण कि ईंटें है.
एक दिशा और भी है , जहां भौतिकवाद और कर्मकांडवाद को मिला कर या विकास और पुरानेपन का घोल बना कर चेहरे पोतने का सतत प्रयास जारी है, ये सदियों से चली आई परम्परा आखिर करती क्या आई है , वही सामूहिक और राजनैतिक तलों पर अंधाधुन्द पनपते भौतिकवाद को अपना आशीर्वाद देती चली आई है. कही गयी बातों को को सिद्दान्त कहा गया फिर उन्हें अपने अनुरूप तोड़ मोड़ कर नए नए प्रकार के आडम्बरों को जन्म दिया गया .
बोरियत के पलों में खाली वैठे हो तो इस कर्मकांडी शांति का सहारा लेकर पराकास्ठा के अभिमान को नहलाया जाता है ,और भविष्य में ज्यादा सुख - समृधि , रूपया पैसा ,सम्पदा कि गारंटी दी जाती है.
भौतिकवाद को नजर न लग जाये इसलिए जरुरी है कि सभी मिलकर रहें पर स्थानीय स्तर तक , और फिर स्वरक्षा कहकर अपने अन्दर छुपी हिंसा को निकालना तो भार्मिक कृत्य है.
इन सभी क्रिया- कलापों में व्यक्ति तो अपने आप को बनाये रखने के लिए जरुरी उर्जा प्राप्त कर लेता है ,पर मुसीबत तो है गवार. अनपद , नासमझ पशु-पक्षियों की ,पेड़- पौधों की . आखिर ये सब प्रकृति प्रदत्त संसाधन ही तो है, जो मनुष्य के लिए उपयोगी वस्तुओं से ज्यादा और कुछ नहीं...और हो भी कैसे सकते है जब इंसान को अपने सामने खड़ा इंसान मशीन से ज्यादा और कुछ नहीं रहा, तो इन संसाधनों की क्या कीमत .
शायद हम ये भूल रहे है , की हमारी वनाई हुई दुनिया हमें आराम तो दे सकती है पर ख़ुशी नहीं ,और कहीं न कहीं प्रक्रति से जोड़ने बाले तार ही हमारे बेचैन दिल में झंकार उठा सकते है . क्योंकि ये भूली हुई चेतना भी उसी प्रक्रति का अंग है .