ठगे से पैरों में हलचल दिखाई पड़ती है
बदलते दौर कि आहट सुनाई पड़ती है .
खुश हूँ , कि कली पर रुबाब आया है
जमे हुए पानी पर फिर वहाब आया है .
लौट आई है ,चमेली पर भूली सी महक
याद आई है , बुलबुल को वही प्यारी चहक .
खुश हूँ , खुशियों के सही मायने के लिए
खुद को दिखा सके , उसी आईने के लिए .
चिंगारी और भी भड़के यही फर्माहिश है
सारा जंगल ये जला दे , यही ख्वाहिश है .
सब कुछ देखता हूँ , फिर भी ये ख्याल आता है
जुवां पे फिर भी, बरबस ये सवाल आता है
ख़ुशी की कलम में कहीं दुख कि स्याही तो नहीं
ख़ामोशी ये ,कहीं किसी तूफ़ान की गवाही तो नहीं .
बड़ चला जो कारवां , कहीं रुक तो न जायेगा
उन्मुक्त परिंदा ,कहीं पिंजरे में तो न आएगा .
समय अभी वहुत है , अंजाम कई है बाकी
जाम तो छलकता है , पर आधा ही है साकी .
समय की आढ़ में बहुतेरे ख्वाब भी बुनते है
कली को नहीं , तोड़ने सब फूल ही चुनते है .
जो दिखाई दे हो सकता है; हो ही न कहीं
सम्भावना तो उसकी भी है , जो दिखता ही नहीं
नहीं ;घबराना नहीं , आग में कूद जाना है
मरना तो कभी है नहीं, नया जीवन पाना है .
सवाल तेरा ही नहीं , सारे उपवन का भी है
ड़ाल , पत्ते , कलियाँ और सावन का भी है.
अस्तित्व एक है सबका , और कहाँ जाइये
भेद तो बहुत सुन्दर है , समानता पर चाहिए .