Sunday, 27 September 2009

प्रेम हो जाये, तो इन्सान तर जाये


इंसानियत फकत है क्या, इस जिंदगी का मकसद
हस्ती अपनी ही मिटाकर ,इंसा एक बनाना है ।
रुक गया था वेबजह ही , चलते तुझे जाना है ।

अकेला है दिले-इंसा,अकेला ही खुदा है
अकेला ही आया था ,अकेला तुझे जाना है.
रुक गया था बेबजह ........................

ऊँची इन लहरों को, बेकार दी तब्बजो.
डूबना ही तो पाना है, बस डूबते जाना है
रुक गया था बेबजह ...................................

खो तू नहीं गया था , ये जमाना खो गया है
हरेक को भुलाकर , अपना सबको बनाना है .
रुक गया था बेबजह .................................

ऐतबार हो गर खुद पे ,क्यों और पे भरोसा.
अँधेरे को समझ ले, जहाँ रोशन जो कराना है
रुक गया था बेबजह ..............................................

समझ गया हूँ अब इस, जूनून-ऐ-इश्क को मैं .
तू दूरियां बना ले, तुझे पास ही आना है .
रुक गया था बेबजह ......................................

इतनी नहीं है राहें ,दिखा दी गयी जो तुझको.
बस एक ही है रास्ता,जिस पर हमें जाना है .
रुक गया था बेबजह ........................................

लपटों का डर है कैसा, जब आग है तू खुद ही
जल जाने दे घरोंदा, बस रूह बचाना है .
रुक गया था बेबजह ........................................

इश्क है ये पगले, मत दे इसे इबारत.
ये अंश है खुदा का, जो तू अब भी दीवाना है
रुक गया था बेबजह .....................................
ये कुछ जबाब उन पंक्तियों के है जो पिछली पोस्ट मैं सवालों के रूप में सामने आये थे वास्तव में यदि मानव अपने पराये में भेद करना भूल जाये तो उसे प्यार की सही कीमत मालूम पढ़ जाये,फिर उसे जिंदगी जीना नहीं पड़ेगी,बल्कि जिन्दगी उसे खुद जीने को प्रेरित करेगी

Tuesday, 22 September 2009

क्या कहा .... प्रेम हो गया?


बनने लगा था इन्सां,पर अब रहा नहीं
गर यूंही था मिटाना ,तो फिर बनाया क्यों था

खोता चला गया हूँ ,ज़माने की भीड़ में तो
गर छोडनी थी ऊँगली तो अपना बनाया क्यों था

बढ़ने की मैं अकेले ,कर ही रहा था कोशिश
सहारा यूंही था छुडाना,तो साथ आया क्यों था

भरोषा किया था इतना, की आँखे नहीं रही ये
गर चराग था बुझाना ,थो फिर जलाया क्यों था

बनने लगी है अब राहें खुद अपनी तर्ज पर ही
रास्ता यूंही था भुलाना, तो फिर दिखाया क्यों था

समझा नहीं हूँ अब तक, जुनुने-ए-इश्क को मैं
गर दूर ही था जाना ,तो पास आया क्यों था

जवां हो चली ये लपटें,चिंगारी से अब तलक तो
आशियाँ यूंही था जलाना, तो फिर सजाया क्यों था

समझा नहीं मैं मकसद ,अब तक भी इश्क के ये
गर होश में था आना,तो फिर दीवाना क्यों था

जीवन के कई पड़ाव है ,कई रंग है. हर एक को समझना, और उन्हें जीना ही हमारा मकसद है, अगर आप चाहते है की जीवन को जी सकें, तो जरुरी है आप के पास प्रेम का सहारा होना चाहिए ,अन्यथा जीवन काटने से ज्यादा कुछ नहीं.
वैसे तो प्रेम एक ही संवेदना है ,पर अनुभव न कर पाने की बजह से खासकर भारत जैसे देश में इसके इतने प्रकार बताये जाते है की गिन पाना मुश्किल है . मगर जब कोई एक खास पड़ाव पर आता है तो वह इस दोराहे पर भ्रमित हो जाता है की जन्मजात संवेदना जिसे प्यार कहते है क्या संबधों के दायरे से बाहर नहीं हो सकती ,क्या कोई और जो उसका कोई नहीं लगता उससे भी प्यार हो सकता है, अब चूँकि प्रेम तो हो ही जाता है ,तो व्यक्ति बड़ी आपाधापी में फंस जाता है क्या करुँ या क्या ना करुँ, और फिर वो समाज के एकतरफा व्यबहार के चलते अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि 'प्रेम' को अपनी गलती समझकर बैठ जाता है.
फिर क्या कई सबाल उठ खड़े होते है, जो की कविता के माध्यम से बताने का प्रयास किया है, हलाँकि अगर खोज को जरी रखा जाये तो जबाब भी मिल जाते है,जो अब अगली पोस्ट का विषय होंगे ।

Wednesday, 16 September 2009

जीवन जीना है तो शराब-ऐ-हँसी पीना है

आज जब हम बहुत व्यस्त है ,तो रोजाना की दौड़-धूप में जीवन को जीना ही भूल जाते है. चेहरों की हंसी अजनबी हो जाती है तो इसी रोज की दौड़-धूप से ही कुछ हंसी के पलों को चुराने की कोशिश है,कुछ इस तरह --

एक बस पकड़ रहा है,और एक सर क्योकि स्कूटर पंचर हो गया है और अब दफ्तर जाने में देर हो रही है; रिक्शे का पहिया टेढा हो गया है,बच्चे ज्यदा भर ,लिए अब उन्हें स्कूल जाने में देर हो रही है

यहाँ मैडम के बाल धुल रहे है उधर महाशय भूखे मर रहे है, महाशय को कोर्ट जाना है और मैडम को बुटीक दोनों को देर हो रही है , एक महिला देखो नोट झटक रही है तो दूसरी की नौकरी अधर में लटक रही है,जल्दी करो भाई कहीं देर न हो जाये

भाई साहब रात भर से जग रहे है,एक बेचारे बेवजह ही भग रहे है;अब क्या करें गार्ड की नौकरी और नाईट शिफ्ट ;दूसरे की ट्रेन छूट रही है मगर बाथरूम का पाइप चोक हो गया है तो कम से कम कमरे के चक्कर तो लगाये ही जा सकते है

एक का पेंट जाली हो गया तो दूसरे का खोपडा खाली हो गया ,बहुत दिनों से कपडे बनबाने का ध्यान ही नहीं रहा पीछे से पेंट छन गया,दूसरे की सुबह सुबह पोहेबाले से बहस हो गयी ,अरे अगर पैसे ले रहा है तो कम से कम प्याज़ तो डाल दिया कर

घर में जाले लटक रहे है,भैया जी चड्डे में मटक रहे है ओफ्फो यह बैंक एक्जीक्यूटिव की नौकरी सुबह से मुह मत धो ,भाई साहब को फ़ोन आ गया पहले प्लान समझाना पड़ेगा

बच्चो को स्कूल की भड-भडी है ,मैडम को पेट की पड़ी है ,सर्दी का ये समय आँखे खुली नहीं ठीक से और स्कूल-बस हार्न दे रही है ,वहां मैडम को बदहजमी हो गयी और तो और हेड-ऑफिस में कोई और घुसा है अब ये देर तो कीमती साबित हो सकती है

बस बाले का पट्रोल जल रहा है ड्राईवर खेनी मल रहा है भाई साहब के बच्चे पता नही क्या पट्रोल के दाम आसमान छु रहे है अबे खेनी तो कभी भी ठूंस सकता है

यहाँ मरने-मारने की सम्भावना बढ़ी है तुझे पीने की पड़ी है ,आपस में ठेकेदार लड़ रहे है की दारू कोंन बेचेगा,और नौजवान बिना पिए रह नहीं सकता "अरे पहले बाटली तो दे दो फिर लड़ लेना "

एक की जेब खाली हो गयी ,दूसरे की देखते ही हालत माली हो गयी ,अरे गुरु अब तो पैसा दे दो तीन साल हो गए आज तो जेब में इतना भी नहीं की सिगरेट पी लूं ,जबाब में " अरे भैया यहाँ तो जहर खाने के भी पैसे नहीं है " तीन साल से बस हवा खाके ही तो जिन्दा था वेचारा

इधर बिना धुले कपडे लटक गए वहां साहब रास्ता भटक गए , मैडम का सहेलियों में गप्पें हांकने का समय हो गया था तो बस कपडे खगाल-खगाल कर लटका दिए सूखने के लिए,वहां साहब को सब्र न था की ट्रेन कब तक जायगी कब फाटक खुलेंगे तो साहब पटरी पकडे-पकडे जाने कहाँ निकल गए सोचा था कहीं से कट लेंगे और जल्दी से जल्दी दुकान खोल लेंगे

पुलिस ने निर्दोष को धर दबोंचा ,मंत्री भिखारी के घर पहुंचा, अगर तीन दिनों के अंदर -अंदर लुटेरों का पता नहीं लगता तो पुलिस की नौकरी जा सकती है,चलो एक निर्दोष को ही बंद कर दिया ,कुछ नहीं से तो कुछ भला ;उधर आज मत्री साहब वोट मांगते-मांगते भिखारी के घर भी जा पहुंचे ,अब जरा आप ही बताइए भिखारी कौन.

Thursday, 10 September 2009

वो बोलता था सच

अब तक बुद्ध के बारे मे जो कुछ भी जाना है, यों समझिये राइ से ज्यादा कुछ भी नहीं पर जितना जाना है,उससे अनुमान तो लगाया ही जा सकता है की वह क्या ब्यक्तित्व होगा जिसने एक समय के बहाव को पूरी तरह से उलट के रख दिया हो; क्या जादू होगा उसकी वाणी मे जिसने उस समय, जब मानवता को तलबार से तौला जाता था करुणा,दया के मंत्रों से दुनिया को बाँध दिया था और बिना किसी अमृतपान के ही अमर हो गया था

आज फिर जब हम बुद्ध के उपदेशों को समसामयिक समाज से तौलते है तो यह समाज बौना नजर आता है

यह बात गौर करने की है की अगर जीवन को बचा कर रखना है तो फिर एक बुद्ध का होना जरुरी है ,अन्यथा यह दुनिया गूंगी और बहरी होकर हिंसा की आग मे जलने तैयार हो चुकी है

बुद्ध को याद करते हुए कुछ पंक्तियाँ बन बैठी थी,जो सुनाने जा रहा हूँ

वो बोलता था सच, क्या कुछ न मिल गया होगा
पानी का था बुलबुला ,पानी मे घुल गया होगा
दुनिया तो बढ़ चली थी, दुनिया को ख़त्म करने
जीवन की उस सुई से, जीवन को सिल गया होगा
क्या कुछ न मिल गया होगा

भावनाओं की नदी के , सूखे हुआ किनारे
सूखे पड़े थे चक्षु, सूखे थे होंठ सारे
आँखों की दी नमी और होंठों को फिर सहारे
सद्भावना का दीपक, करुणा से जल गया होगा
क्या कुछ न मिल गया होगा
साँसे तो चल रही थी, पर था कहाँ पे जीवन
गा तो सभी रहे थे ,पर थी कहाँ वो सरगम
बिगुल की लय क्षमा से, दया का राग गया
आजाद सा परिंदा , पिंज़रे से उड़ गया होगा
क्या कुछ न मिल गया होगा
धर्मों मे जल रही थी, जीवन की दिव्यता भी
लम्हों मे बिक रही थी,निस्वार्थ आत्मीयता भी
आते ही उसके जैसे ,उमडा हो जैसे यौवन
संवेदना का युवा पुष्प, महाबोधि पे खिल गया होगा
क्या कुछ न मिल गया होगा