Sunday, 14 November 2010

कहना सुनना या जानना नहीं, जी लेना है इसे

गम कहूँ या हँसी ,लगता है कि झोंका है
कहता हूँ तो तन्हाई, देखता हूँ तो मौका है.

कहता है वफ़ा जिसको,लगता है कि धोखा है 
तू है कहाँ खुद का ,फिर किसका भरोसा है.

माना जिसे हकीकत,वस शब्दों का घेरा है 
अँधेरा है कहा जिसको, नामौजूद सबेरा है

जी रहा है जिसको, जो जीवन सा दिखता है 
सोचा है वो किसी का,जो बाज़ार में बिकता है.

पल पल है सँवारा, जिसे सभाल कर रखता है
 ये जो रेत का घरोंदा,बनता है; के मिटता है.

माना इसे तो चाँदी,माना तो ये सोना है
ये उधार कि आँखे,और खुद में ही रोना है .

उड़ सके जो फलक तक,पिंजरे में वो मैना है
कुछ डरे डरे से पर है , और सूखे से नैना है.

इस हाथ कि खुशी जो, उस हाथ का ही गम है    
है कलम तक लिखावट , और आँख तो दर्शन है .
 

Wednesday, 15 September 2010

ख़ुदा-ए-जहान का भी अजीब किस्सा है

  ख़ुदा-ए-जहान का भी अजीब किस्सा है .
  क़त्ल हो रहा है जो, कातिल का ही हिस्सा है .

  बंद है आँखें उसकी और ध्यान गाफ़िल है.
  जो मिल रहा उसे वो नाम क़ातिल है.

  मरने वाले  को बेशक़, मौत कि न समझ आई है.
  क़ातिल के है जो सामने खुद उसकी ही सच्चाई है.

 क़त्ल और क़ातिल एक ही जहां कि बातें है 
 जो समझ सके वो समझ ले, एक ही सी साँसे हैं .

इंसानियत कि खाल में नकाबपोश मौन हैं.
न मरने वाला, न मारने वाला ये कुसूरवार कौन है.


Sunday, 1 August 2010

रूहें घरों में बंद पड़ी है देखो. ........

रूहें घरों में बंद पड़ी है देखो. 
राहों में तो मशीने नजर आती है 

समय गुजारना स्वभाव बन गया है 
रूहें खुद को कहाँ समझने  पातीं है 

इंसान कि आखों का पानी जम गया है 
परायी सिसकियों कि कब याद आती है 

अपनत्व कि आढ़ में व्यापार पनपते हैं .
अपनेपन कि परिभाषा कहाँ समझ आती है .

पग पग पर भविष्यवाणियों  का बाज़ार लगा है.
सब कुछ जानते भी दुनियां खुद को भरमाती है 

रंगों का क्या ये तो जगह जगह मिलते है 
फिर भी ये दुनियां श्वेत श्याम नजर आती है 

जब  कभी ये पलके वोझिल महसूस करती है .
अचानक ही अश्कों कि  स्याही बन जाती है .

Saturday, 12 June 2010

के प्याला जिंदगी का......

                              मत तौल के ये जिंदगी  बोझ नहीं है.
मत सोच के ये जिंदगी सोच नहीं है.
जी गया है ,जिसने खुद को पा लिया है 
      के  प्याला जिंदगी का मजे से पिया है......

बैसे तो दुनिया का कोई छोर नहीं है.
चला जा कहीं भी, तू कोई और नहीं है 
वाह रे भगवन ये तूने कैसा वर दिया है. 
दूसरों की सोच ने, अपंग कर दिया है.

तू ही है आसमां ,धरा भी तू ही  है.
दुनियां की नेमतों से भरा भी तू ही है .
अर्थ की तलब  ने, अनर्थ कर दिया है.
सुखों की तलाश ने, दुखों से भर दिया है 

जीवन जीने की, परिभाषाएं नहीं होती.
इस बात को समझने भाषाएँ नहीं होती.
समझने की चाह में, विवेक खो दिया  है .
युगों-युगों से कटुता का बीज बो दिया है .

न समझ इसे संघर्ष,ये कुस्ती नहीं है 
जीतने की प्यास कभी बुझती नहीं है.
बैर ने हसी से कितना दूर कर  दिया है.
प्याला इस जिंदगी का चूर कर दिया है .

निर्झर इस नदी को वेरोक बहने दो.
इसकी ये कहानी , इसी को कहने दो .
जीवन वही जो खुद की शर्तों पे जिया  हो.
के प्याला  जिंदगी का मजे से पिया हो......

Friday, 4 June 2010

शायद कहीं ऐसी भी दुनिया होगी

शायद कहीं ऐसी भी दुनिया रही  हो 
की मीरा बेरोक नृत्य करती रही हो .

ह्रदय  में उमड़ा हुआ अंतहीन सावन होता हो 
कलियाँ खिलती रहें फूलों पर ताउम्र योवन हो. 

पर्वत का पत्थर व्रक्षों का वोझ सहता हो 
वेखोफ़ जहाँ जीवन एक साथ रहता हो .

घोसलों में  जहाँ  उन्मुक्त सवेरा सांस लेता हो 
और भोर से थक कर अँधेरा निश्चिंत सोता हो. 

जहाँ प्रेम का फरमान हवायें गुनगुनाती हों
हर राह से होकर नदियाँ फिर मिल जाती हों .

अस्तित्व का विस्तार दिशायें रोक न पाती हों 
समय सीमायें तोड़कर सदियाँ खुद खो जाती हों. 

जहाँ दिल खोल कर दीवाना भीग सकता हों 
जहाँ उन्मुक्त हों नवजात जीना सीख सकता हों. 

जहाँ माया का रूपरंग ,मायना समझ न आता हों 
जीवन का मतलब है बस्तु समझा न जाता हों. 


Friday, 19 March 2010

क्षितिज ने पहली बार चादर हटाई है

दिल में अजीब सी उलझन है
पर लगता यूँ है ,कुछ उम्मीद नजर आई है.

सब कुछ भुला देने को मन करता है,
तो ऐसी कौन सी बात याद आई है.

नजरों के सामने भीड़ दिखाई पड़ती है,
पर अन्दर तो दिखती तन्हाई है.

अँधेरा भी है और सन्नाटा भी,
पर देखा तो लगा, कोयल गाई है.

मौसम थमा सा और खुला सा दिखाई देता है,
फिर कहाँ से बिजली कि चमक आई है.

तन में थकन और आँखों में नीद है,
पर होंटों पर जागृत सी मुस्कान उभर आई है.

दिमाग ने मान ही लिया था इसे उदासी,
पर दिल ने कहा खुशी की झलक पाई है.

धरातल भी दिखाई पड़ता है, और आसमां भी,
क्षितिज ने पहली बार चादर हटाई है..........

Tuesday, 9 March 2010

जीवन...... या जानी-समझी बेहोशी .

   हृदय में अजीब सी  खिन्नता नजर आती है,ऐसा नहीं है कि आसपास व्यस्तता का अभाव हो ,बात तो यही है ये व्यस्तता आखिर चाह क्या रही है. शांत भाव से यदि अवलोकन किया जाये तो हम पते है , कि कोई कथनी में मगन है तो कई करनी में ......... लक्ष्यों कि भरमार है, जिन पर लक्ष्यों का अभाव है उन पर तो और ज्यादा व्यस्तता मुह बाये खड़ी है.
       
     पर ये सब हो क्या रहा है ,और ये सब क्यों हो रहा है मकसद सबके एक ही समान है जैसे -किसी को अपना सर ऊँचा करना है तो किसी के माँ बाप के अरमान अधर में लटक रहे है, किसी की जेब  है कि भरने का नाम ही नहीं लेती, किसी को आये दिन समस्या खड़े रहती है आदि - आदि .
   
   बचपन से अब तक कई परिवर्तन देखने को मिले ,लेकिन सिवाय देखने के कुछ समझ नहीं आया कि ये परिवर्तन आखिर हुए क्यों. वैसे दुनियादारी कि भाषा में तो कई तर्क दिए जा सकते है, क्योंकि यहाँ पर आसन शब्दों द्वारा कठिन से कठिन कहे जाने बाले सरल से सरल सवालों के जटिल से जटिल जबाब बना लिए गए है.
     
    दुनिया विकास कर रही है और विकास की ही बात की जा रही है, पर ये विकास कैसा है बही ऊँची-ऊँची इमारतें,बही उच्च छमता बाले राजमार्ग , जिन्हें देखकर खुद के छोटेपन को बड़ा किया जा सके . सब कुछ हमारे ही आनुरूप.  

    पेट  का पानी हिलना सेहत के लिए हानिकारक हो सकता है , ये तो अब एक विचार का रूप बन गया है, शरीर  को   आराम देना जरुरत के साथ साथ मापन पद्धति भी बनकर उभरी है. क्योंकि ज्यादा शान-शोलत ज्यादा आराम-दायक वस्तुओं कि वहुलता प्रभुत्त्व निर्माण कि ईंटें  है. 

     एक दिशा और भी है , जहां भौतिकवाद  और कर्मकांडवाद को मिला कर या विकास और पुरानेपन का घोल बना कर चेहरे पोतने का सतत प्रयास जारी है, ये सदियों से चली आई परम्परा आखिर करती क्या आई है , वही सामूहिक और राजनैतिक तलों पर अंधाधुन्द पनपते भौतिकवाद  को अपना आशीर्वाद देती चली आई है. कही गयी बातों को को सिद्दान्त कहा गया फिर उन्हें अपने अनुरूप तोड़ मोड़ कर नए नए प्रकार के आडम्बरों को जन्म दिया गया . 

   बोरियत के पलों में खाली वैठे हो तो इस कर्मकांडी शांति का सहारा  लेकर पराकास्ठा के अभिमान को नहलाया जाता है ,और भविष्य में ज्यादा सुख - समृधि , रूपया पैसा ,सम्पदा कि गारंटी दी जाती है.
   
   भौतिकवाद को नजर न लग जाये इसलिए जरुरी है कि सभी मिलकर रहें पर स्थानीय स्तर तक , और फिर स्वरक्षा कहकर अपने अन्दर छुपी हिंसा को निकालना  तो भार्मिक कृत्य है.

  इन सभी क्रिया- कलापों में व्यक्ति तो अपने आप को बनाये रखने के लिए जरुरी उर्जा  प्राप्त कर लेता है ,पर मुसीबत तो है गवार. अनपद , नासमझ पशु-पक्षियों की ,पेड़- पौधों की . आखिर ये सब प्रकृति प्रदत्त  संसाधन ही तो है, जो मनुष्य के लिए उपयोगी वस्तुओं से ज्यादा और कुछ नहीं...और हो भी कैसे सकते है जब इंसान को अपने सामने खड़ा इंसान मशीन से ज्यादा और कुछ नहीं रहा, तो इन संसाधनों की क्या कीमत .
   
  शायद हम ये भूल रहे है , की हमारी वनाई हुई दुनिया हमें आराम तो दे सकती है पर ख़ुशी नहीं ,और कहीं न कहीं प्रक्रति से जोड़ने बाले तार ही हमारे बेचैन दिल में झंकार उठा सकते है . क्योंकि ये भूली हुई चेतना भी उसी प्रक्रति का अंग है .

Friday, 19 February 2010

अच्छा लगे बड़ा ही ,कुदरत का ये वर्ताव

अच्छा लगे बड़ा ही , कुदरत का ये  वर्ताव.

चढ़ने को है सूरज ,बढ चली है नाव.

वृक्षों की पत्तियों पर ,ओस का ये छिडकाव.

अकड़ी सी टहनियों में , यूँ बला का घुमाव.

नटखट सी नदी का , अलबेला सा ठहराव.

महकी सी हवा का , शर्मीला सा बहाव .

चहकते से पंछियों का ,तट पर ये जमाव .

गुनगुनाते से दिल में ,उमड़ते ये भाव .

अच्छा लगे बड़ा ही ,कुदरत का ये वर्ताव .