Tuesday, 13 October 2009

दिवाली या सिर्फ सजी हुई इमारतें .....

अध्यात्मिकता का सम्बन्ध स्वतंत्रता से है और जब व्यक्ति पूर्ण रूप से स्वतंत्र होता है तो उसे खुश होने के लिए त्यौहार की जरुररत नहीं होती,हमारे देश में व्यक्तिगत जीवन को सामाजिक दायरे में इस तरह से बाँधा गया है ,की वह परतंत्रता को ही अपना जीवन लक्ष्य समझता रहे. और इस सामाजिक जीवन में थोड़े सा मनोरंजन लाने के लिए त्योहारों को स्थान दिया गया है तो क्या हम त्योहारों के माद्यम से वाकई ख़ुशी महसूस करते है या सिर्फ ये आ रहे ढर्रे का अंश मात्र है

खुशहाली आज फिर से भरमाने को है ,
दिवाली आज फिर से आने को है।
दिलों में रक्खा क्या ,दीवारें साफ़ है ,
फिर क्या नजर दौडायिए,आप ही आप है.
धन की ये सालगिरह मानाने को है,
दिवाली फिर से आने को है।
मोह्हले के बच्चे की पत्तल अधूरी है,
थाली का क्या हो, भोग लगाना पहले जरुरी है.
शुभकामनाओं का बाजार गरमाने को है
दिवाली आज फिर से आने को है।
ज्योत का ज्योत से संगम दिखाया जायेगा,
इस बहाने रूखापन जिंदगी का छिपाया जायेगा.
अर्थ आज फिर से देवत्व पाने को है,
दिवाली आज फिर से आने को है।

कबीलों में कुछ समय फिर से मस्ती छाई है,
नफरत पसंदी इन दिलों को जिन्दादिली याद आई है
दुखित मन दिल खोल अपनापन दिखाने को है.
दिवाली आज फिर से आने को है।
दीपक क्या रात का कालापन दूर कर पायेगा,
धमाका क्या दिलों का सन्नाटा हटाने पायेगा.
सोये हुए दिलों में उत्साह समाने को है,
दिवाली आज फिर से आने को है।

सच को क्या किसी मौके की कवायत होती है,
हर दिन जीवन का सावन,हर रात दिवाली होती है
हर रोज की तरह एक आवाज उठाने को है
दिवाली है ,क्या रोज मनाने को है ।

4 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत बढिया रचना है।और ब्लोग भी बहुत सुन्दर बनाया है।बधाई स्वीकारें।

आमीन said...

बहुत बढिया

Anonymous said...

u have rightly said ,Diwali is victim of consumerism, there is no true love

रामकुमार अंकुश said...

काश! इस गहरे यथार्थ को कोई समझ पाता
त्योहारों का असली आनंद तभी आता है.जब
केवल संवेदनाएं हमारे मध्य हों. लेकिन हमने त्योहारों
को नकली जामा पहना कर उन्हें सीधे अर्थ से जोड़ दिया है.
अब तो दीवाली भी वहीँ है जहाँ लक्ष्मी है.
धन की अंधी दौड़ ने जैसे मनुष्यता को निगल लिया है.
खैर त्यौहार तो हमारे दिलों में है. हर क्षण जीवन का आनंद लिया जाना चाहिए