Friday, 4 June 2010

शायद कहीं ऐसी भी दुनिया होगी

शायद कहीं ऐसी भी दुनिया रही  हो 
की मीरा बेरोक नृत्य करती रही हो .

ह्रदय  में उमड़ा हुआ अंतहीन सावन होता हो 
कलियाँ खिलती रहें फूलों पर ताउम्र योवन हो. 

पर्वत का पत्थर व्रक्षों का वोझ सहता हो 
वेखोफ़ जहाँ जीवन एक साथ रहता हो .

घोसलों में  जहाँ  उन्मुक्त सवेरा सांस लेता हो 
और भोर से थक कर अँधेरा निश्चिंत सोता हो. 

जहाँ प्रेम का फरमान हवायें गुनगुनाती हों
हर राह से होकर नदियाँ फिर मिल जाती हों .

अस्तित्व का विस्तार दिशायें रोक न पाती हों 
समय सीमायें तोड़कर सदियाँ खुद खो जाती हों. 

जहाँ दिल खोल कर दीवाना भीग सकता हों 
जहाँ उन्मुक्त हों नवजात जीना सीख सकता हों. 

जहाँ माया का रूपरंग ,मायना समझ न आता हों 
जीवन का मतलब है बस्तु समझा न जाता हों. 


6 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत भावपूर्ण रचना है। बधाई।

संजय कुमार चौरसिया said...

sundar rachna, sundar bhav

http://sanjaykuamr.blogspot.com/

vandana gupta said...

शायद होगी कहीं ऐसी भी दुनिया…………अगर आपने कल्पना की है तो कहीं ना कहीं तो जरूर होगी…………………क्युंकि जहाँ ना पहुँचे रवि वहाँ पहुंचे कवि।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

सुन्दर भाव ...अच्छी कल्पना की दुनिया

sonal said...

very nice

Shekhar Kumawat said...

bahut khub



फिर से प्रशंसनीय रचना - बधाई